Wednesday, May 29, 2019

फ़ैशन की कीमत चुकाते बेज़ुबान जानवर

धरती मां जैसी दूसरी कुछ नहीं. बर्फीली चोटियां, हरे-भरे जंगल, नदियां, झीलें और अथाह समंदर की क़ुदरती ख़ूबसूरती हैरान कर देती है.

पृथ्वी पर 80 लाख से ज़्यादा प्रजातियों के जीव और पौधे हैं. सबका जीवन इस धरती पर ही टिका है.

कई लोग इस पर अपना नैसर्गिक हक समझते हैं और इसकी क़द्र नहीं करते.

फ़ैशन की हमारी बढ़ती चाहत से धरती का दम घुट रहा है, फिर भी इंडस्ट्री इसका समर्थन करती है. असल में फ़ैशन इंडस्ट्री धरती को सबसे ज़्यादा प्रदूषित करने वाले कारकों में से एक है.

फ़ैशन की हमारी भूख ने कई प्रजातियों को उन्मूलन की कगार तक पहुंचा दिया है. उनके क़ुदरती आवास, जहां से हमें ताज़ी हवा मिलती है, को नष्ट किया जा रहा है.

फ़ैशन इंडस्ट्री दुनिया के सबसे ख़राब प्रदूषकों में से एक है और कई देशों में इसने पर्यावरण पर बुरा असर छोड़ा है.

महंगी दुकानों में बिकने वाले कई फाइबर ने वन्यजीवों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचाया है.

हम सिर्फ़ फ़र कारोबार के प्रत्यक्ष प्रभाव की बात नहीं कर रहे. यहां हम फ़ैशन के 5 सामान्य सामग्रियों की बात करेंगे जिनके बारे में आपने सोचा भी नहीं होगा कि वे वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं.

मंगोलिया के घास के मैदान, वहां के चरवाहे और वन्यजीव, जिनमें स्नो लेपर्ड, कोरसाक लोमड़ी और बोबाक मारमॉट शामिल हैं, इन दिनों गंभीर संकट में हैं.

जलवायु परिवर्तन के कारण घास के मैदान वैसे भी सिमट रहे हैं. मिट्टी का कटाव हो रहा है, झीलें और नदियां सूख रही हैं.

1990 के दशक से अब तक पशुओं की संख्या तीन गुणा बढ़ गई है. उनकी चराई से घास के मैदानों को सबसे ज़्यादा नुकसान हो रहा है.

ऐसा क्यों हो रहा है? इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है दुनिया भर में सस्ते कश्मीरी ऊन की बढ़ती मांग.

बकरियों के मुलायम ऊन का इस्तेमाल कश्मीरी जंपर बनाने में होता है. ये बकरियां भेड़ों और दूसरे मवेशियों की तुलना में घास के मैदानों को अधिक नुकसान पहुंचाती हैं.

हम सभी यह तो जानते हैं कि समंदर से लेकर नदियों तक में प्लास्टिक का स्तर ख़तरनाक स्तर तक पहुंच गया है और जलीय जीवों पर उनका असर पड़ रहा है.

लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस ख़तरे में वाशिंग मशीन का भी हाथ है.

सिंथेटिक फाइबर (पोलीस्टर, नाइलॉन, एक्रिलिक वगैरह) के कपड़े जब मशीन में धोये जाते हैं तो उनके रेशों से लाखों सूक्ष्म कण अलग हो जाते हैं जो वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से होते हुए नदियों, झीलों और समंदर तक पहुंच जाते हैं.

सिंथेटिक फाइबर के इन कणों में ज़हरीले रसायन होते हैं. डिटर्जेंट और दूसरे रसायनों के साथ मिलकर वे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर बुरा असर डालते हैं.

ये कण पानी से होते हुए जानवरों के शरीर में पहुंच जाते हैं.

केकड़े, झींगा, मछलियां, कछुए, पेंगुइन, सील, मैनाटीस और समुद्री ऊदबिलाव जैसी प्रजातियां इन सूक्ष्म कणों को ग्रहण कर लेती हैं.

हम जो खाना खाते हैं उनमें भी ये माइक्रोफाइबर मिलते हैं. ये माइक्रोफाइबर पाचन तंत्र को अवरुद्ध कर सकते हैं और पेट की अंदरुनी परत को नुकसान पहुंचा सकते हैं.

लकड़ी की लुगदी विस्कोस और रेयॉन बनाने के लिए आधार सामग्री है. फ़ैशन इंडस्ट्री कई तरह के कपड़े बनाने के लिए इनका इस्तेमाल करती है.

आप जो नहीं जानते वह यह है कि यह लुगदी अक्सर पुराने या लुप्त हो रहे जंगलों के पेड़ों से निकाली जाती है.

मतलब यह कि जो कपड़े हम खरीदते और पहनते हैं उनका सीधा संबंध जंगल की कटाई से है.

हर साल 15 करोड़ से ज़्यादा पेड़ कपड़े बनाने के लिए काटे जा रहे हैं.

कुछ बड़े नाम वाले ब्रांड प्रमाणित जंगलों से ही विस्कोस इकट्ठा करते हैं. लेकिन इंडोनेशिया, कनाडा और अमेजॉन क्षेत्र में लुगदी के लिए काटे जाने वाले पेड़ों की संख्या बढ़ रही है.

पेड़ कार्बन को सोख लेते हैं, इसलिए जंगलों की कटाई से जलवायु परिवर्तन पर भी गंभीर असर पड़ता है.

फ़ैशन की ये आदतें बहुत हानिकारक हैं- जंगल में हजारों प्रजातियों के घर हैं, जिनमें से कई पहले से ही दुर्लभ और लुप्तप्राय हैं.

कपास प्राकृतिक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह टिकाऊ पर्यावरण के लिए सही है.

कपास की खेती दूसरे किसी भी फसल के मुक़ाबले धरती का ज़्यादा नुकसान करती है. इसकी खेती में बहुत अधिक पानी की जरूरत होती है, जिससे ताज़े पानी की कमी हो रही है.

सूती की सिर्फ़ एक टी-शर्ट बनाने के लिए 2,700 लीटर पानी की ज़रूरत हो सकती है.

इससे कज़ाखिस्तान के अरल सागर और इसमें रहने वाली प्रजातियों को बड़ा नुकसान हुआ है.

इत्तफाक से, कपास की खेती के लिए खाद, कीटनाशक और दूसरे हानिकारक रसायनों की भी बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है, जो आख़िर में जलाशयों और जमीन में समा जाते हैं.

दुनिया भर में अकेले कपास की खेती में कुल कीटनाशकों का 22.5 फीसदी हिस्सा इस्तेमाल होता है.

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